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सामाजिक >> ढाई घर

ढाई घर

गिरिराज किशोर

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :392
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 416
आईएसबीएन :81-263-1042-1

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साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखक श्री गिरिराज किशोर का सामाजिक उपन्यास ‘ढाई घर’

Dhai Ghar - A Hindi Book by - Giriraj Kishore ढाई घर - गिरिराज किशोर

प्रख्यात उपन्यासकार गिरिराज किशोर के उपन्यास ‘ढाई घर’ में ऐसे अनेक रंग, रेखायें, चरित्र और परिवेश के स्वर हैं जो नये समाज और उसकी धड़कन को बिल्कुल नयी भंगिमा के साथ प्रस्तुत करते हैं।

यह उपन्यास क्यों ?

जब मेरे सामने बिशन भाई का यह प्रस्ताव आया कि मैं ‘जुगलबन्दी’ जैसा कि उपन्यास लिखूँ तो ऐसा नहीं कि मैं यह न समझा हूँ कि इस वाक्य में व्यंजना क्या है। लेकिन न जाने कैसे वह वाक्य ज्यूँ का त्यूँ मेरे दिमाग़ में उतर गया। मेरे अन्तर्मन में यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ-क्या वास्तव में ‘जुगलबन्दी’ में सब कुछ कहा जा चुका ? उसके अलावा कुछ नहीं कहना ? लगभग ऐसा ही प्रश्न तब भी उठा था जब ‘लोग’ लिख लेने के बाद ‘जुगलबन्दी’ लिखना ठीक होगा या नहीं ? तब इतने-से उत्तर से ही काम चल गया था कि ‘लोग’ ‘जुगलबन्दी’ नहीं है। ‘जुगलबन्दी’ का लिखा जाना अभी बाकी है। वास्तव में ‘जुगलबन्दी’ ‘लोग’ था भी नहीं। इस बार यह सवाल कुछ ज़्यादा शिद्दत के साथ, कई रंगों में सामने आया। आखिर उस वातावरण पर कब तक लिखते रहोगे ? क्या तुम्हारे पास लिखने को और कुछ नहीं ?

मेरे कुछ मित्रों ने यह भी कहा कि अगर ऐसा ही है तो ‘जुगलबन्दी’ का दूसरा भाग क्यों नहीं लिख लेते ? पर मैं सच कहूँ कि इन सवालों ने मुझे अपने आपको और ज़्यादा टटोलने का मौका दिया। मुझे यही लगा कि अभी तो वातावरण और समाज के ऐसे बहुत से पक्ष बाकी हैं जिनका, नये बनते या बने समाज को समझने के लिए, सामने आना ज़रूरी है। उन बातों को मैं नहीं कहूँगा तो शायद मेरी पीढ़ी का कोई और लेखक न कहे। जाना हुआ जीवन कई बार अपने आपको छोटे-छोटे अन्तरालों के बाद टुकड़ों-टुकड़ों में खोलता चलता है और लेखक के लिए चुनौती बनता जाता है।

 लेखक को उस चुनौती का खुले दिलो-दिमाग़ के साथ सामना करना पड़ता है। क्योंकि जब तक लेखक उस सबको को कह नहीं लेता तब तक वह अपने आपको उस रचनात्मक दबाव से मुक्ति नहीं दिला पाता। लेखक अपने अनुभव, दु:खों ओर सुखों को अपने पाठकों के साथ बाँटता है, उनसे हिस्सेदारी करता है, उसके अलावा उन्हें देने के लिए लेखक के पास कुछ और है ही नहीं। उसकी अन्तरंग से अन्तरंग बातों में उसके पाठक ही हिस्सेदार होते हैं। कई बार वे बातें स्वीकार्य होती हैं, कई बार नहीं होतीं और कई बार स्वीकृति या अस्वीकृति में ही कई दशक लग जाते हैं।
जिस माहौल में, जिस संस्कृति और जिन स्थितियों से उपजे अनेक छोटे-बड़े पात्रों को, उनकी कुंठाओं, उनके छोटेपन या बड़प्पन को देखा, उनका एक बहुत बड़ा हिस्सा मेरे स्मृति कोष में अभी बाकी है। जब यह बात मेरे सामने आयी तो जैसे सब कुछ खुलता और फैलता चला गया। मेरे पास यही एक रास्ता रह गया था कि मैं उस माहौल को पुन: जिऊँ और उस पर लिखूँ। कई बार लेखक अपनी मुक्ति के लिए भी लिखता है और अपने नये-पुराने समाज की पहचान के लिए भी। इसके दोनों ही पक्ष होते हैं-नुकसान भी और सार्थकता भी। साहित्य में होने वाला सबसे बड़ा नुकसान रचनाकार की रचना का अस्वीकार ही है। लेखक को उसके लिए हर समय तैयार रहना पड़ता है। क्योंकि रचना को सार्थक बनाना उसके पाठकों के हाथ में है। इस बारे में लेखक स्वयं कुछ नहीं कर सकता।
एक बात और है। मुझे समाज और मनुष्य, मनुष्य और मनुष्य तथा व्यक्ति और प्रतिष्ठान के बदलते रिश्ते हमेशा से आकर्षित करते रहे हैं। कहानी हो या नाटक या उपन्यास या लेख, मैं इन बदलते रिश्तों निरन्तर सामने लाने की कोशिश करता रहा हूँ। मेरी इच्छा हमेशा उन बदलते रिश्तों का गायक बने रहने की रही है।
एक वक़्त और एक समाज में जो कुछ बदलता है वह अगले समाज में बनने वाले रिश्तों का आधार होता है। ‘कोशिश’ शब्द का प्रयोग करने के पीछे मेरा मात्र मतलब कोशिश ही है उपलब्धि नहीं। लेखन-प्रयत्न-जीवी है। उपलब्धियों का क्षेत्र विज्ञान है, व्यवसाय है, राजनीति आदि हैं। साहित्य तो बहुत बाद में आता है। यहाँ असफलताएँ ही सफलता का रास्ता दिखाती हैं। वैसे तो ऐसे भी लेखक हैं जो अपनी हर कोशिश की उपलब्धि में बदलने का प्रयत्न करते हैं। एक रचना लिखकर वे तब तक उसका प्रचार करते हैं जब तक उसे उपलब्धि न मान लिया जाये। लेकिन यह कितने दिन चल पाता है। लेखन तो एक आवा है। उसमें हजारों मिट्टी के कच्चे दीये लगते हैं तो कुछ प्रथम कोटि के बनकर निकलते हैं, कुछ अधपके, कुछ टूटे हुए। खाली या अधपके आवे से यह उम्मीद करना ही हर रचना श्रेष्ठतम बनकर निकले असंभव को साधने का स्वप्न देखने की तरह है।
मैं यह भी जानता हूँ कि पुनरावृत्ति चाहे माहौल की हो या किसी समाज की या पात्रों की, पाठक उसे बड़ी मुश्किल से स्वीकार करता है। लेकिन वृत्ति, आवृत्ति, पुनरावृत्ति यदि ये सब किसी समाज को संगठित करके पेश करने और उसके बारे में समझदारी बनाने में सहायक होती हैं तो लेखक के लिए उस खतरे को उठाना ज़रूरी हो जाता है।

अगर वह ऐसा नहीं करता तो अपने लेखकीय दायित्व पर वह स्वयं ही प्रश्न चिह्न लगाता है। किसी और के सामने उत्तरदायी होता ही है। मेरे लिए उपन्यास या कहानी अब मनोरंजन के माध्यम नहीं। शायद यही कारण है कि मेरी रचनाएँ लेखक के साथ-साथ पाठक पर भी एक तरह का दबाव बनाती हैं। दबाव सहज स्वीकार्य नहीं होता, चाहे वह किसी भी तरह का दबाव क्यों न हो। इसीलिए वे उतनी जन-व्यापी नहीं हो पातीं। मैं उपन्यास को एक समाजशास्त्री अध्ययन भी मानता हूँ-अनेक प्रकार के संबंधों को, जो रहे हैं, या हैं या आगे बनेंगे, व्याख्यायित करने वाले मानवीय समीकरण। मेरी दृष्टि में उपन्यास और कहानियाँ, बल्कि नाटक भी, जीवन के प्रति वैज्ञानिक और अर्ध-वैज्ञानिक दृष्टिकोण बनाने में मदद करते हैं और उन्हें ऐसा करना चाहिए। यशपाल की रचनाएँ काफ़ी हद तक इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। जो हम आज लिख रहे हैं वही जीवन के प्रति दृष्टिकोण निर्धारित करने में आने वाली पीढ़ी की मदद करेगा। न सही युग-प्रवर्तक साहित्य के रूप में-खाद का योगदान भी कम नहीं होता।
मुझे यह उपन्यास एक लेखकीय दायित्व के निर्वाह की तरह लगा। ये सब बातें आत्म-औचित्य प्रतिपादन  की तरह भी मालूम पड़ सकती हैं परन्तु उससे विशेष अन्तर नहीं पड़ता, क्योंकि लेखक जीवन भर यही तो करता है। कभी अपने लिए, कभी समाज और जीवन की दृष्टि से, अपने आपको रात-दिन धुनकर उन निष्कर्षों या तथ्यों तक पहुँचता है जो उसके अस्तित्व के होने को सही ठहराते हैं।
यह उपन्यास नितान्त किस्सागोई है। कभी-कभी लग सकता है कि तारतम्य गड़बड़ा गया। पर ऐसा है नहीं। सूत्र अपने आप चटकते और एक-दूसरे से जुड़ते रहते हैं। यह एक लम्बी उठान वाली, टूटी-टूटी कथा है जो एक समाज से दूसरे समाज में बदलते संबंधों को रेखांकित करती है।
मैं कह नहीं सकता कि इस उपन्यास के बारे में बिशन भाई की क्या प्रतिक्रिया होगी। लेकिन मैं यह जानता हूँ कि उनके इतना कहने मात्र ने मेरी स्मृति-कुण्ललिनी जाग्रत कर दी। वरना पता नहीं कब और किस रूप में वे स्मृतियाँ सामने आतीं ! आती भी या नहीं ! हो सकता है मैं उनसे, वे मुझसे अनजान ही बने रहते। बिशन जी ने मेरी एक और सहायता भी की, कई तथ्यात्मक प्रतिक्रियाओं और स्थितियों की जानकारी देकर मुझे सुधार करने का अवसर दिया।
इस उपन्यास के नाम के बारे में भी मैं काफी शशोपंज में था। पहले मैंने इसका नाम ‘रघुबर सब जानता है’ रखा, फिर ‘घोड़े’ रखने की सोची, लेकिन अन्त में मुझे ‘ढाई घर’ ही ठीक लगा। ‘ढाई घर’ और ‘घोड़े’ का वैसे भी गहरा संबंध है। शतरंज का घोड़ा आगे-पीछे सब घर चलता है। नाम के लिए राजेन्द्र को धन्यवाद देना शायद ज़रूरी है।

507, आई.आई.टी.
कानपुर 18 अक्टूबर (दीपावली, 90)

-गिरिराज किशोर

मेरा नाम भास्कर राय है। मैं उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाके के एक पुराने खाते-पीते राय खानदान का अन्तिम राय हूँ। अब मेरे बाद कोई राय नहीं होगा। मेरे बच्चे हैं पर जिस आधार पर हम लोग राय हुआ करते थे वह एक बड़ी ज़मीदारी थी। वह कभी खत्म हो गयी। विरासत और रियासत दोनों ही नहीं रहे। मैं जब तक यूँ राय नाम को वहन कर रहा हूँ क्योंकि मैं उसी रियासत का एक हिस्सा हूँ। बचा हुआ। मेरे पिता यानी बड़े राय जिनका नाम हरीराय था लगभग तीस वर्ष पूर्व गोलोक सिधार गये थे। उस दिन दशहरे का दिन था। हम लोगों ने जल्दी-जल्दी दशहरे की पूजा निबटायी थी। जैसे ही पूजा करके उनके पास गये और पण्डित जी ने उनके मस्तक पर टीका लगाया वैसे ही उन्होंने प्राण त्याग दिये। सब असला भरे हुए तैयार थे। दशहरे के दिन लगभग ग्यारह गोलियाँ दागी जाती थीं। पर दगवाने वाला ही चला गया।

 इसलिए असला झुका दिये और तोपखाने में जमा कर दिये गये। मेरी याद में यह पहली बार हुआ था कि दशहरा पूजन हो गया हो और गोलियाँ न दगी हों। बस उसी समय मुझे लगा अब राय खानदान खत्म। कुछ लोग रोशनी की मानिन्द होते हैं। जब तक रोशनी है तब तक सब कुछ जीता-जागता लगता है। जैसे ही रोशनी गुल हुई सब नदारद ! बड़े राय के जाते ही मुझे इसी अहसास ने घेर लिया। मुझे लगा अब मुझे भी जीना है। दरअसल अब मेरे मरने का वक्त आ गया। यह कहना मुश्किल है कब मरूँगा, पर जिऊँगा भी कितना ! जितनी जल्दी छुट्टी हो उतना अच्छा। बदबख्त ज़िन्दगी किस काम की। अगर उसे बदलने की कुव्वत हो तब भी एक बात है। अब वह भी खत्म हो गई। न तो धक्कों को बर्दाश्त करने वाली वह लचक ही बची और न इस बात की गुंजाइश-कि चुनौतियों के सामने डटकर खड़ा हो सकूँ। अब मेरी उम्र चौरासी वर्ष की है। इसी उम्र में बड़े राय भी गये थे। उनकी वह उम्र तो पा गया। भले ही उनका-सा यश और वैभव न पा सका होऊँ। हालाँकि आखरी दिनों में उनकी मुट्ठी से भी वह रेत की तरह फिसल गया था।
अब राय परिवार की दुर्दशा का दौर है। लोग हैं पर कुछ नहीं। मेरा बड़ा बेटा रघुबर है। उसे ही समझो बची-खुची राय परिवार की नाक। पर वह काफी दूर है। वह हम तक नहीं लौट पाता और हम उस तक नहीं पहुँच पाते। ध्यान पूरा रखता है। अभी पिछले दिनों जब मेरे लोहे का कूल्हा लगा और मैं दिल्ली के अस्पताल में पड़ा रहा तो उसी ने सब कुछ किया। पर ध्यान ध्यान होता है, लगाव लगाव। लगाव तो अब रहा ही नहीं। उसी तरह गायब हो गया जैसे आजकल के गोंद से चिपचिपाहट। या तो चिपकता नहीं और चिपकता है तो बहुत कम। हाँ, ‘गम’ जरूर चिपकता है। पर वह निखालिस गोंद नहीं होता। वैसे भी जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया, वैसे-वैसे हमारे इस परिवेश के प्रति घृणा से भरता गया था। खैर ! मैं दुर्दशा की बात कर रहा था।
जब तक मेरे पिता यानी बड़े राय थे तब तक मैं किसी भगवान को नहीं मानता था। अब मैं लेटा-लेटा भी पूजा करता रहता हूँ। जब सारे पुल ध्वस्त होने लगते हैं तो मनुष्य आसमान की तरफ देखता है। पुल आसमान से उतरे या ना उतरे, पर लगता यही है कि आसमान ही बचा है जहाँ से वह उतर सकता है। हालाँकि पुल जमीन की ही चीज़ होते हैं। जब तक बड़े राय रहे वे ही मेरे भगवान थे। मुझे हमेशा लगा कि मैं तो उनके पेशाब से पैदा हुआ हूँ। बक़ौल रघुबर के, सामन्ती परम्परा में जो पैदा करे वो भगवान, जो खाना दे वह भगवान। जब पिता ही भगवान हो तो फिर जाना कहाँ ! अब शायद ऐसा नहीं होता और न पिता भगवान होता है और न शायद भगवान पिता।

मेरी पढ़ाई-लिखाई कम हुई थी। ज़्यादा हो भी जाती पर कैसे कैक्टस का पौधा कम जल पीता है बड़े आदमी का बच्चा कम पढ़ता है। कुछ पढ़ भी लेते हैं। उनके दिमाग में इसकी बू नहीं होती। यही तब भी था। ऐसे घरों के लड़के कम पढ़ते थे। पढ़ना ग़ुलामी का निशाना माना जाता था। हालाँकि वही लोग सबसे ज़्यादा गुलाम होते थे। जब मेरे बच्चे यानी सोना, रघुबर, गिरवर वगैरह पढ़ते नहीं थे और मैं उन्हें कौंचता रहता था तो मुझे अदकबा कर अपना ज़माना याद आ जाता था। जो बात मेरे लिए बेइज़्ज़ती की थी उसी के लिए मैं अपने बच्चों को क्यों कहता हूँ।

 हालाँकि बड़े राय को भी पढ़ाई के महत्त्व का पता था। उस ज़माने में उन्होंने दसवीं क्लास तक अंग्रेजी, फ़ारसी और उर्दू पढ़ी थी। वे भी पढ़ने के लिए कहते थे। पर उनका सरोकार शायद उतना न रहा हो। नहीं तो मैं पढ़ गया होता। कभी-कभी मुझे लगता है कि अगर मैं उस समय पढ़-लिख गया होता तो शायद अपनी और आगे आने वाले भविष्य की चिन्ता करना सीख गया होता। अपनी जहालत के वज़न के नीचे इस तरह न दबा पड़ा रहता। अपने अधपढ़े होने पर पिता के रुतबे ने मुझे भविष्य के बारे में निश्चिन्त कर दिया था। अब समझ में आता है कि पिता के सहारे किसी की राह नहीं होती। स्वयं अपने प्रयत्नों से उसे सीधा करना पड़ता है।
रघुबर इसकी मिसाल है। उसने अपनी राह सीधी करने की कोशिश की तो हो गयी। गिरवर आदि मेरे ऊपर     निर्भर रहे।    वे आज भी वही हैं। मुझे उनकी ही चिन्ता है। मेरे बाद उनका क्या होगा ? रघुबर करेगा ज़रूर पर कितना....!
कभी-कभी मुझे लगता है अगर मैं बड़े राय की तरह अंग्रेजी जानता होता तो मैं भी उनकी तरह आनरेरी मजिस्ट्रेट हो गया होता। मुकदमे किया करता। वे शुरू में आनरेरी मजिस्ट्रेट हुए थे, बाद में असिस्टेण्ट कलक्टर। अंग्रेज हुकूमत बड़ी चालाक थी। हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा हो जाय। आनरेरी मजिस्ट्रेट बनाकर रुपया भी बचाती थी, उनसे अपने लोगों के खिलाफ़ फ़ैसले भी लिखवाती थी और उनके मन में विशिष्ट होने का मुगालता भी पैदा करती थी। बड़े राय अपनी आनरेरी मजिस्ट्रेटी से फूले नहीं समाते थे। यह बात अलग है कि ग़ुलाम बनाने का एक और भी बड़ा शौक़ रहा हो। ये बातें अब महसूस होती हैं जब ज़माना बहुत बदल गया। तब मुझे भी यही लगता था कि इससे बड़ा सम्मान और क्या हो सकता है। अपने दिल की बात बताऊँ तो आप हँसेंगे। मैं भी सपनों में अपने आपको बड़े राय की तरह कचहरी करते, फैसले सुनाते, पुलिस वालों को सैल्यूट लेते देखा करता था। अब जब वह पूरा तिलिस्म टूट गया तो लगता है कि जितनी बड़ी विशिष्टता थोपी जाती है, ग़ुलामी की रस्सियाँ उतनी ही मज़बूत होती हैं। अब कोई विशिष्टता नहीं बची। पर ग़ुलामी की वे रस्सियाँ आदतों के रूप में अभी भी जकड़े हैं।
वैसे मुझे अंग्रेज़ों से डर लगता था। बड़े राय उनके साथ उठते-बैठने का गर्व महसूस करना भी-दोनों ही अपनी तरह की ज़हालतें थीं। यह मैंने रघुबर के सम्पर्क में आकर सीखा। रघुबर शुरु में मुझे गुस्ताख लगा। इतने बड़े-बड़े लोगों के बारे में वह जिस प्रकार का व्यवहार करता था हम लोग अपने ज़माने में कल्पना भी नहीं कर सकते थे। मुझे तब लगता था, अगर अंग्रेजों में से किसी ने बन्दर की तरह घुड़क भी दिया तो मैं उड़ जाऊँगा। हमारे घर में अंग्रेजों की बहुत-सी उतरनें थीं। उस उतरन को हम सौभाग्य की तरह लेते थे। हर एक को गर्व के साथ दिखाते थे। चाहे चैस्टर ड्राअर हो या सिंगार मेज या फिर फर्श-या अन्य सजावट की चीज़ें। बर्तनों को छोड़कर सब कुछ। हर चीज़ उस अंग्रेज अफ़सर की चिट लगी थी जिससे खरीदी गयी थी। अमुक जज.....अमुक कलक्टर.....अमुक कमिश्नर...! वे सब लोग उन चीज़ों के माध्यम से हमारी ज़िन्दगी के अभिन्न अंग बन गये थे। वे चीज़ें अब भी हैं पर बेसीदी हालत में। हिस्सेदारी भी खत्म हो गयी। वैसे वे ज़िन्दा है या मर गये खुदा जाने। हमारे लिए ज़िन्दा हैं। उनका सामना सस्ता नहीं था। ज़्यादा ही दाम देने पड़ते थे। साहबों का नाम जो उनसे जुड़ा होता था। उसे रिश्वत कहिए या इतने बेशक़ीमती ताल्लुक़ात का शुक्राना।

मैं यानी भास्कर राय बड़े राय का बड़ा बेटा था। मेरा एक छोटा भाई अरुण राय भी था और एक बहन  रानी थी। बहन तो अब नहीं है छोटा भाई है। वह मुझसे करीब बीस साल छोटा था। बार-बार ‘था’ कह देता हूँ-है। जैसा कि ऊपर कह चुका हूँ। बड़े राय फ़ारसी, अंग्रेजी और उर्दू अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने एन्ट्रेंस तक पढ़ा था। अंग्रेज़ों में बैठते थे। सूट पहनते थे। लेकिन न शराब पीते थे और न गोश्त खाते थे और न खाना खाते थे। गाँधी जी से उनकी नाराज़गी का एक यह कारण भी था। कभी जब क्लब में या रईसों के यहाँ डिनर होता था तो हलवाई का बना देशी खाना एक पण्डित उनके लिए अलग से लगा देता था। पीने का पानी भी क़लई के बर्तनों में तौलिये से ढककर अलग मेज़ पर रख दिया जाता था। इन सब बातों को वह पूरे विश्वास के साथ स्वीकार करके चलते थे कि ऐसा ही हो रहा है। क्लब में मुसलमान भी नौकर थे, ईसाई भी थे और दूसरी जातों के भी थे। पर उनके लिए ब्राह्मण का लड़का रखा गया था। उस ज़माने में यह कोई नयी बात नहीं थी। हिन्दुओं की खास बात थी। इसका नतीजा था कि दूसरे धर्मों और जातियों के ऐसे लोग जिनका आपस में खान-पान था आगे-पीछे हँसकर कहते थे कि हम क्या करें, हरी राय साहब को हमने तो अछूत बनाया नहीं, उन्होंने अपने आप ही अपने को अछूत बना लिया। बड़े राय जैसे अनेक लोग ऐसे थे जिनकी जिंदगी में छुआछूत एक खास जगह रखती थी। मैं भी तब उसमें विश्वास करता था। बाद में जब बच्चे बड़े हुए और दुनिया बदली तो मुझे उसे छोड़ना पड़ा। लेकिन कुछेक जातों को छुआ मेरे लिए अभी भी वर्जित है। इसका मेरे पास कोई जवाब नहीं कि क्यों ?
बड़े राय चूँकि पढ़ाई के महत्त्व को जानते थे इसलिए उन्होंने बहुत कोशिश की कि मैं पढ़ लूँ। पर मैं तो बड़े राय का बेटा था। पढ़ता कैसे ? हमारे शहर में दो अंग्रेज़ी स्कूल थे। उस ज़माने में हर ज़िले में एक-आध ही अंग्रेज़ी स्कूल होता था। उनमें से एक स्कूल हम लोगों का था। उस स्कूल का नाम एडवर्ड स्कूल था। नौकर लोग सामान्यत: उसे अँग्रेज़ी स्कूल ही कहते थे। जो ज़्यादा पढ़े-लिखे होने का अहसास देते थे। वे एडवर्ड स्कूल कह देते थे। पाँचवीं तक तो मैंने उर्दू और फ़ारसी घर पर ही पढ़ी थी। छठी में मुझे स्कूल में दाखिला कर दिया गया था। उर्दू और फ़ारसी वाले मौलवी साहब का घर पर पढ़ाना तब भी जारी रहा था। स्कूल में अंग्रेज़ी का जोर था। मेरी अंग्रेज़ी कमज़ोर थी। अंग्रज़ी पढ़ाने के लिए भाटिया साहब को लगा लिया था। वे घर पर पढ़ाने आते थे। उनका वज़न दो-ढाई मन से किसी कदर कम नहीं रहा होगा। तब मोल के बटखरे मन, सेर, छटाँक ही थे। भाटिया सर को गाड़ी लेने जाया करती थी। मौलवी जी लँगड़े थे। लँगड़ाते-लँगड़ाते अपने आप ही चले आते थे। हालाँकि उनका घर नज़दीक था। फिर भी अंग्रेज़ी के मास्टर साहब और मौलवी जी के बीच कोई निस्बत नहीं थी। अंग्रेज़ी का मास्टर तब भी बड़ी चीज़ माना जाता था। अगर कभी मौलवी साहब को गाड़ी में बैठने को मिल जाता था तो बच्चों की तरह खुश हो जाते थे। दुआ ही दुआ दे डालते थे।

भाटिया साहब थैंक्यू कहकर गाड़ी से उतर जाते थे। मौलवी साहब की दुआ से ज़्यादा उनके थैंक्यू में जादू था। जो भी साईस गाड़ी पर होता था वह थैंक्यू को जादुई वाक्य की तरह दोहराता रहता था। सुना जाता है कि ग़दर के दिनों में कुछेक कश्मीरी पण्डितों ने अंग्रेज़ी वाक्य बोलकर ही अपने सीने पर तनी बन्दूकों को झुकने के लिए मजबूर कर दिया था। जब वे भाग रहे थे तो उन्हें अंग्रज़ों द्वारा पकड़ लिय़ा गया। ज़्यों ही उन्होंने अंग्रेज़ी में गिटिर-पिटिर की, बन्दूकें झुक गयीं। जिस ज़बान में ऐसा चमत्कार हो उसके क्या कहने। सुना जाता है पण्डित जी के बुजुर्ग भी उन्हीं में थे। लोग तो यहाँ तक कहते हैं जब बाद में पण्डित जी का राज्य आया तो उन्हें भी इस भाषा का ख्याल रखा जिसने बुजुर्गों को जीवनदान दिलाया था। उससे मुझे तब भी डर लगता था और बाद में भी लगता रहा। लेकिन बच्चों के लिए मैं अंग्रेज़ी को बेशक़ीमती ज़बान मानता रहा। बचपन में जब भाटिया साहब पढा़ने आते थे और वाक्य बनवाया करते थे तो मैं कही पर ‘वर’ और कहीं पर ‘इज़’ लगा देता था। अपने यहाँ बड़ों के लिए बहुवचन वाचक क्रिया इस्तेमाल होती है। उसी को मैं अंग्रेज़ी में फिट कर देता था। भाटिया साहब बिना कान पकड़े नहीं छोड़ते थे। एक बार उन्होंने चपत लगा दिया था। मैंने आँखें तरेरकर कहा था-‘‘मास्स साहब, आज चपत लगाया सो लगाया-आगे लगाया तो अच्छा नहीं होगा।’’
अगले दिन से भाटिया साहब ने आना बन्द कर दिया। गाड़ी खाली लौट आयी। बड़े राय के नाम एक नोट था-कुछ व्यक्तिगत कारणों से पढ़ाने नहीं आ सकूँगा। माफ़ी चाहता हूँ। जहाँ तक मौलवी साहब का सवाल था उनका तो मैं हाथ तक पकड़ लेता था। बड़े राय जब पूछते थे कि भास्कर की पढ़ाई कैसी चल रही है तो मैं पीछे से उनकी तरफ आँख निकाल देता था । वे कह देते थे, ‘‘ठीक चल रही है, हुजूर।’’
लेकिन भाटिया साहब की चिट्टी ने कबाड़ा कर दिया। बड़े राय ने पूछा, ‘‘भाटिया साहब ने पढ़ाना क्यों बन्द कर दिया?’’


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